03-05-77  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

कर्मों की अति गुह्य गति

संगमयुगी ब्राह्मणों की विचित्र लीला को देखते हुए बाबा बोले:-

बापदादा बेहद के अनादि अविनाशी ड्रामा की सीन के अन्दर विशेष कौन सी सीन देख हर्षाते हैं? जानते हो? वर्तमान समय बाप-दादा ब्राह्मणों की लीला, विचित्र और हर्षाने वाली देख रहे हैं। जैसे बच्चे कहते हैं, ‘हे प्रभु तेरी लीला आपरम्पार है’ वैसे बाप भी कहते हैं, ‘बच्चों की लीला बहुत वन्डरफुल (Wonderful;आश्चर्यवत) है, वैरायटी लीला है।’ सबसे वन्डरफुल लीला कौन सी देखने में आती है, वह जानते हो? अभी-अभी कहते बहुत कुछ हैं, लेकिन करते क्या हैं? वह खुद भी समझते। क्यों कर रहे हैं, यह भी जानते। जैसे किसी भी आत्मा के, वा किसी भी विकारों के वशीभूत आत्मा; परवश आत्मा, बेहोश आत्मा क्या कहती, क्या करती, कुछ समझ नहीं सकते। ऐसी लीला ब्राह्मण भी करते हैं। तो बाप-दादा ऐसी लीला को देख रहमदिल भी बनते हैं, और साथ-साथ न्यायकारी सुप्रीम जस्टिस (Supreme Justice) भी बनते हैं अर्थात् लव और लॉ (Love And Law;प्यार और कानून) दोनों का बैलेंस (Balance;संतुलन) करते हैं। एक तरफ रहमदिल बन बाप के सम्बन्ध से रियायत भी करते हैं। अर्थात् एक, दो, तीन बार माफ भी करते हैं। दूसरी तरफ सुप्रीम जस्टिस के रूप में कल्याणकारी होने के कारण, बच्चों के कल्याण अर्थ ईश्वरीय लॉज (Laws;कानून) भी बताते हैं। सबसे बड़े ते बड़ा संगम का अनादि लॉ कौन सा है? ड्रामा प्लान अनुसार एक लाख गुणा प्राप्ति और पश्चात्ताप, वा भोगना,यह ऑटोमेटीकली (AUTOMATICALLY;स्वत:) लॉ अर्थात् नियम चलता ही रहता है। बाप को स्थूल रीति-रस्म माफक कहना वा करना नहीं पड़ता, कि इस कर्म का यह लेना, वा इस कर्म की सज़ा यह है। लेकिन यह ऑटोमेटिक ईश्वरीय मशीनरी (Automatic Godly Machinery;स्वचालित ईश्वरीय यंत्र) है, जिस मशीनरी को कोई बच्चे जान नही सकते, इसलिए गाया हुआ है - ‘कर्मों की गति अति गुह्य है।’

बाप को जान लिया, पा लिया वा वर्सा भी पा लिया, ब्राह्मण परिवार के अन्दर ब्राह्मण भी स्वयं को मान लिया, ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी का टाईटल (Title) भी लग गया; ईश्वरीय सेवा अर्थ निमित्त बन गए। सहज राजयोगी भी कहलाया, प्राप्ति के अनुभव भी करने लग गए, ईश्वरीय नशा, प्राप्ति का नशा भी चढ़ने लगा, प्रालब्ध का निशाना भी दिखाई देने लगा, लेकिन आगे क्या हुआ? माया की चैलेन्ज (Challenge;चेतावनी) को सफलता पूर्वक सामना नहीं कर पाया। माया के वैरायटी रूपों को परख नहीं पाते हैं, इसलिए कोई माया को बलवान देख दिल-शिकस्त हो जाते हैं; क्या हम विजयी बन सकेंगे? कोई सामना करते-करते कब हार, कब जीत अनुभव करते हैं, थक जाते हैं। अर्थात् थककर जहाँ हैं, जैसा है वहाँ ही रूक जाते हैं। आगे बढ़ने का सोचते भी हिम्मत नहीं आती।

कोई अपने में, बाप के डायरेक्ट (Direct) साथ और सहयोग लेने की हिम्मत न देख, राह पर चलने वाले साथियों को ही पंडा बनाते अर्थात् उन द्वारा ही साथ और सहयोग की प्राप्ति समझते हैं। बाप के बजाए कोई आत्मा को सहारा समझ लेते हैं, इसलिए बाप से किनारा हो जाता है। तिनके को अपना सहारा समझने कारण, बार-बार तुफानों में हिलते और गिरते रहते हैं। और सदैव किनारा दूर अनुभव करते हैं। ऐसे ही कोई व्यक्ति के सहारे के साथ-साथ कई आत्माएं, किसी न किसी प्रकार के सैलवेशन (Salvation;सहुलियत) के आधार पर चलने का प्रयत्न करती हैं - यह होगा वा ऐसा होगा तो पुरूषार्थ करूँगा, यह मिलेगा तो पुरूषार्थ करूँगा। ऐसे सैलवेशन रूपी लाठी के आधार पर चलते रहते हैं। अविनाशी बाप का आधार न लें, अल्पकाल के अनेक आधार बना लेते हैं।

जो आधार विनाशी और परिवर्तनशील है, उसको आधार बनाने कारण, स्वयं भी सर्व प्राप्तियों के अनुभव को विनाशी समय के लिए ही अनुभव करते हैं, और स्थिति भी एकरस नहीं, लेकिन बार-बार परिवर्तन होती रहती। अभी-अभी बहुत खुशी और आनन्द में होंगे, अभी-अभी मुरझाई हुई मूर्त्त, उदास और नीरस मूर्त्त होंगे। कारण? कि आधार ही ऐसा है। कई आत्माएं बहुत अच्छे हुल्लास, उमंग, हिम्मत और बाप के सहयोग से बहुत आगे मंजिल के समीप तक पहऊँच जाती हैं, लेकिन 63 जन्मों के हिसाब यहाँ ही चुक्तू होने हैं। अपने पिछले संस्कार, स्वभाव बाहर इमर्ज (Emerge) ही, सदा के लिए समाप्त हो रहे हैं, उस कर्मों की गुह्य गति को न जान घबरा जाते हैं - क्या लास्ट तक यही चलेगा? अब तक भी यह टक्कर क्यों होता? इन व्यर्थ संकल्पों की उलझन के कारण प्यार नहीं कर पाते। सोचने में ही टाईम वेस्ट कर देते हैं और कोटों में कोई तूफानों को भी ड्रामा का तोफा समझ स्वभाव संस्कारो की टक्कर को आगे बढ़ने का आधार समझ, माया को परखते हुए पार करते, सदा बाप को साथी बनाते हुए, साक्षी हो हर पार्ट देखते, सदा हर्षित हो चलते रहते। सदैव यह निश्चय रहता है कि अब तो पहऊँचे। तो बाप इतने प्रकार की लीला बच्चों की देखते हैं।

याद रखो, सच्चे बाप को अपने जीवन की नैया दे दी, तो सत्य के साथ की नांव हिलेगी, लेकिन डूब नही सकती। बाप को जिम्मेवारी देकर वापिस नहीं ले लो। मैं चल सकूंगा - ‘मैं’ कहां से आई? मैं-पन मिटाना अर्थात् बाप का बनना। यही गलती  करते हो, और इसी गलती  में स्वयं उलझते परेशान होते। मैं करता हूँ, या मैं कर नहीं सकता हूँ, इस देह-अभिमान के ‘मैं-पन’ का अभाव हो। इस भाषा को बदली करो। जब मैं बाप की हो गई, वा हो गया, तो जिम्मेदार कौन? अपनी जिम्मेवारी सिर्फ एक समझो - जैसे बाप चलावे वैसे चलेंगे, जो बाप कहे वह करेंगे। जिस स्थिति के स्थान पर बाप बिठाए वहाँ बैठेंगे। श्रीमत में मैं पन की मनमत मिक्स नहीं करेंगे, तो पश्चात्ताप से परे, प्राप्ति स्वरूप और पुरूषार्थ की सहज गति प्राप्त करेंगे अर्थात् सदा सद्बुद्धि प्राप्त करेंगे। अपने को वा दूसरों को देख घबराओ मत। क्या होगा? यह भी होगा? घबराओ नहीं लेकिन गहराई में जाओ। क्योंकि वर्तमान, ‘अन्तिम समय’ समीप के कारण एक तरफ, अनेक प्रकार के रहे हुए हिसाब-किताब, स्वभाव-संस्कार वा दूसरे के सम्बन्ध सम्पर्क द्वारा बाहर निकलेंगे अर्थात् अिन्तम विदाई लेंगे। तो बाहर निकलते हुए अनेक प्रकार के मानसिक परीक्षाओं रूपी बीमारियों को देख घबराओ नहीं। लेकिन यह अति, अन्त की निशानी समझो। दूसरे तरफ, अन्तिम समय समीप होने के कारण कर्मों की गति की मशीनरी भी तेज़ रफ्तार से दिखाई देगी। धर्मराजपुरी के पहले यहाँ ही कर्म और उसकी सज़ा का बहुत साक्षात्कार अभी भी होंगे - आगे चलकर भी। और सत्य बाप के सच्चे बच्चे बन, सत्य स्थान के निवासी बन, जरा भी असत्य कर्म किया तो प्रत्यक्ष दंड के साक्षात्कार अनेक वंडरफुल (Wonderful;आश्चर्य) रूप के होंगे। ब्राह्मण परिवार वा ब्राह्मणों की भूमि पर पांव ठहर न सकेंगे, हर दाग स्पष्ट दिखाई देगा, छिपा नहीं सकेंगे। स्वयं अपने गलती  के कारण मन उलझता हुआ टिका नहीं सकेगा। अपने आप को, अपने आप सजा के भागी बनावेंगे। इसलिए यह सब होना ही है। इसके नॉलेजफुल बन घबराओ मत। समझा? मास्टर सर्वशक्तिवान घबराते नहीं हैं। अच्छा।

कर्मों की गति को जानने वाले, सदा हर सेकेण्ड, हर संकल्प, बाप की श्रीमत प्रमाण चलने वाले, अपने जीवन की जिम्मेवारी बाप के हवाले करने वाले, सदा बाप के सहारे को सामने रखते हुए सर्व विघ्नो से किनारा करने वाले, सम्पूर्ण स्थिति के किनारे को सदैव सामने रखने वाले, ऐसे हिम्मत, हुल्लास, उमंग में सदा रहने वालों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दीदी जी से-

अभी तो बाप बच्चों को सम्पन्न रूप में देखना चाहते हैं। लेकिन सम्पन्न बनने में ही वन्डरफुल बातें देखेंगे। क्योंकि यह प्रैक्टीकल पेपर हो जाते हैं। किसी भी प्रकार नया दृश्य वा आश्चर्यजनक दृश्य सामने आये, लेकिन दृश्य ‘साक्षी दृष्टा’ बनावे, हिलावे नहीं। कोई भी ऐसा दृश्य जब सामने आता है तो पहले साक्षी दृष्टा की स्थिति की सीट पर बैठ देखने वा निर्णय करने से बहुत मजा आयेगा। भय नहीं आयेगा। अब हुआ ही पड़ा है, तो घबराना वा भयभीत होना हो ही नहीं सकता। जैसे कि अनेक बार देखी हुई सीन फिर से देख रहे हैं - इस कारण क्या हुआ? क्यों हुआ? ऐसे भी होता है? यह तो नई बातें हैं! यह संकल्प वा बोल नहीं होगा। और ही राजयुक्त, योगयुक्त हो, लाईट हाउस (Light House) हो, वायुमण्डल को डबल लाईट बनावेंगे। घबराने वाला नहीं। ऐसे अनुभव होता है ना? इसको कहा जाता है - पहाड़ समान पेपर राई के समान अनुभव हो। कमज़ोर को पहाड़ लगेगा और मास्टर सर्वशक्तिवान को राई अनुभव होगा। इसी पर ही नम्बर बनते हैं। प्रैक्टीकल पेपर पास करने के ही नम्बर बनते हैं। सदैव पेपर पर नम्बर मिलते हैं। पढ़ाई तो चलती रहती है लेकिन नम्बर पेपर के आधार पर होते। अगर पेपर नहीं, तो नम्बर भी नहीं। इसलिए श्रेष्ठ पुरुषार्थी पेपर को ‘खेल’ समझते हैं। खेल में कब घबराया नहीं जाता है। खेल तो मनोरंजन होता है। तो मनोरंजन में घबराया नहीं जाता है। दिन प्रतिदिन बहुत कुछ आगे बढ़ने और बढ़ाने के दृश्य देखेंगे। छोटी सी गलती  मुश्किल बना देती है। वह कौन सी गलती ? सुनाया ना। मैं कैसे करूँ, मैं कर नहीं सकती, मैं चल नहीं सकती, किसने कहा आप चलो? बाप ने तो कहा नहीं कि अपने आप चलो। साथी का साथ पकड़ कर चलो। साथ छोड़ अपने ऊपर क्यों बोझ उठा कर चलते, जो कहना पड़े - मैं नहीं चल सकती, मैं नहीं कर सकती। गलती  अपनी और फिर उल्हाने देंगे बाप को। अंगुली खुद छोड़ते, बोझ खुद उठाते, फिर कहते बोझ उठाया नहीं जाता। किसने कहा तुम उठाओ? आदत है ना बोझ उठाने की। जिसकी आदत होती है बोझ उठाने की, उनको बैठने का सहज काम करने कहो तो कर नहीं सकेगा। तो यह भी पिछली आदत के वश हो जाते हैं। यह भी नहीं कह सकते, मेरे पिछले संस्कार हैं। पिछले संस्कार हैं अर्थात् मरजीवा नहीं बने हैं। जब मरजीवा बन गए तो नया जन्म, नए संस्कार होने चाहिए। पिछले संस्कार पिछले जन्म के हैं। इस जन्म के नहीं। वह कुल ही दूसरा, यह कुल ही दूसरा। वह शुद्र कुल, यह ब्राह्मण कुल। जब कुल बदलता है तो उसी कुल की मर्यादा को पालन करना है। जैसे लौकिक रीति में भी अगर कन्या का कुल शादी के बाद बदल जाता है तो उसी कुल की मर्यादा प्रमाण अपने को चलाना होता है। यह भी कुल बदल गया ना। तो यह सोचकर भी कमज़ोर न होना कि पिछली आदत है ना। इसलिए यह तो होगा ही। लेकिन अब के कुल की मर्यादा क्या है, उस मर्यादा के प्रमाण यह है ही नहीं।

पार्टीयों के साथ-

शक्ति सेना वा पांडव सेना दोनों ही माया को परखते हुए उसे भगाने वाले हो ना। घबरा करके रूकने वाले तो नहीं हो? ऐसे भी युद्ध करने वाले जो योद्धे होते हैं, उन्हों का स्लोगन होता है - हारना वा पीछे लौटना वा रूकना - यह कमज़ोरों का काम है। योद्धा अर्थात् मरना और मारना। तो आप भी रूहानी योद्धे हो। रूहानी सेना में हो। तो रूहानी योद्धे भी डरते नहीं, पीछे नहीं हटते, लेकिन आगे बढ़ते सदा विजयी बनते हैं। तो विजयी बनने वाले हो या घबराने वाले हो? कभी-कभी बहुत युद्ध करके थक जाते हो या रोज-रोज युद्ध करके अलबेले हो जाते हो। वैसे भी रोज-रोज एक ही कार्य करना होता है तो कई बार ऐसे भी होता है - सोचते हैं यह तो चलता ही रहेगा, कहां तय करें, यह तो सारी जिन्दगी की बात है। एक वर्ष की तो नहीं। लेकिन सारी जिन्दगी को अगर 5000 वर्ष की प्रालब्ध के हिसाब से देखो तो सेकेण्ड की बात है वा सारी जिन्दगी है? बेहद के हिसाब से देखो तो सेकेण्ड की बात है। विशाल बुद्धि बेहद के हिसाब से देखेंगे। वह कब थकेंगे नहीं। सारे कल्प के अन्दर पौना भाग प्राप्ति है, यह तो लास्ट (Last) में गिरावट का अनुभव होता है। इस थोड़े से समय के आधार पर कल्प का पौना भाग प्राप्ति है, उस हिसाब से देखो, तो यह कुछ भी नहीं हैं। बेहद का बाप है, बेहद का वर्सा है तो बुद्धि भी बेहद में रखो, हद की बातें समाप्त करो। समझा? जब कोई के सहारे से वा कोई स्वयं आपको साथ ले जाए, तो फिर थकने की तो बात ही नहीं है। बाप तो याद के साथ की गोदी में ले जाते हैं। पैदल करते ही क्यों हो जो थकते हो। सदा और साथ की गोद से उतरते ही क्यों हो, जो चिल्लाते हो। क्या करे? करना कुछ भी नहीं है, फिर भी थकते हो। कारण? अपनी बेसमझी। अपना हठ करते हो। जैसे बालहठ होता है ना। बालहठ करके अपनी मनमत पर चल पड़ते हो, इसलिए अपने आपको परेशान करते हो। यह बाल हठ नहीं करो। श्रीमत में अगर मनमत मिक्स करते तो ऐसे मिक्स करने वालों को सज़ा मिलती। सज़ा बाप नहीं देता, लेकिन स्वयं, स्वयं को सज़ा के भागी बना देते हैं। खुशी, शक्ति गायब हो जाना ही सज़ा है ना।

जो जिसके नजदीक होता उसके संग का रंग अवश्य लगता है। अगर बाप के नजदीक हो तो उसके संग का रंग जरूर लगेगा। जैसे बाप का रूहानी रंग है तो जो संग करेंगे, उसे रूहानी रंग लगेगा। एक ही संग होगा, तो एक ही रंग होगा। अगर सर्व शक्तिवान बाप का सदा संग है तो माया मुरझा नहीं सकती। कनेक्शन (Connection;जोड़) है तो करेंट आती रहेगी। कनेक्शन ठीक हो तो आटोमेटिकली सर्वशक्तियों की करेंट आएगी। जब सर्व शक्तियां मिलती रहेगी तो सदा हर्षित रहेंगे। गम ही खत्म हो जाएगी। संगम का समय है खुशियों का, अगर ऐसे समय पर कोई गम करे तो बुरा लगेगा ना?

महावीर वा महाविरनी की मुख्य निशानी क्या होगीं? वर्तमान समय के प्रमाण महावीर की निशानी हर सेकेण्ड, हर संकल्प में चढ़ती कला का अनुभव करेंगे। जो महावीर नहीं वह कोई सेकेण्ड वा कोई संकल्प में चढ़ती कला का अनुभव, कोई में ठहरती कला का। चढ़ती कला आटोमेटिकली सर्व के प्रति भला अर्थात् कल्याण करने के सेवा निमित्त बना देती। वायब्रेशन (Vibration) वातावरण द्वारा भी कइयों के कल्याण कर सकते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘‘चढ़ती कला तेरे भाने सब का भला।’’ वह अनेकों को रास्ता बताने के निमित्त बन जाते। उन्हें रूकने वा थकने की अनुभूति नहीं होगी। वह सदा अथक, सदा उमंग, उत्साह में रहने वाले होंगे। उत्साह कभी भी कम न हो, इसको कहा जाता है ‘महावीर।’ रूकने वाले घोड़े सवार, थकने वाले प्यादे, सदा चलते रहने वाले महावीर। उनकी माया के किसी भी रूप में आंख नहीं डूबेगी, उसको देखेंगे ही नहीं। वह माया के किसी भी रूप को देखते हुए भी देखेंगे नहीं। महावीर अर्थात् फुल नॉलेज (Full Knowledge;पूर्ण ज्ञान) फुल नॉलेज वाले कभी फेल नहीं हो सकते। फेल (Fail;नापास) तब होते हैं जब नॉलेज का कोई पाठ याद नहीं होता। नॉलेजफुल बनना है, सिर्फ नॉलेज नहीं। यह नई बात है, यह पता नहीं - उन्हों के यह शब्द कभी नहीं होंगे।

लास्ट का पुरूषार्थ वा लास्ट की सर्विस कौन सी है? आजकल जो पुरूषार्थ चाहिए वा सर्विस चाहिए, वह है वृत्ति से वायुमण्डल को पावरफुल (Powerful;शक्तिशाली) बनाना। क्योंकि मैजारिटी अपने पुरूषार्थ से आगे बढ़ने में असमर्थ होते हैं। तो ऐसे असमर्थ व कमज़ोर आत्माओं को अपने वृत्ति द्वारा बल देना यह अति आवश्यक है। अभी यह सर्विस चाहिए। क्योंकि वाणी से बहुत सुनकर समझते, अभी हम सब फुल हो गए हैं, कोई नई बात नहीं लगेगी। वाणी से नहीं लेने चाहते। वृत्ति का डायरेक्ट (Direct) कनेकशन वायुमण्डल से है। वायुमण्डल पावर फुल होने से सब सेफ हो जाएंगे। यही आजकल की विशेष सेवा है। वरदानी का अर्थ ही है - ‘वृत्ति से सेवा करने वाले।’ महादानी है वाणी से सेवा करने वाले। वरदानी की स्टेज की आजकल जरूरत है। वृत्ति से जो चाहो वह कर सकते हो।

अब वरदान लेने का समय समाप्त हुआ। दाता के बच्चे दाता होते हैं। दाता को लेने की आवश्यकता नहीं, इसलिए अभी ‘वरदानी’ बनो।

जैसे सर्विस के वृद्धि के प्लान बनाते हो, वैसे अपने पुरूषार्थ के वृद्धि के प्लान बनाओ। सर्विस में तो औरों के सहयोग की जरूरत पड़ती, लेकिन अपने पुरूषार्थ की वृद्धि के प्लान में बाप के सहयोग से बहुत कुछ कर सकते हैं। अभी तुम सबको मन्सा, वाचा, कर्मणा तीनों के प्रोग्राम फिक्स करो। अपनी डेली-डायरी (Daily Diary) रखो तब ही नम्बर आगे का ले सकेंगे। नहीं तो आगे नम्बर नहीं ले सकेंगे, पीछे रहना पड़ेगा। आगे बढ़ने वालों की निशानियां यह होती हैं। अच्छा। ओम् शान्ति।